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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2784
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 हिन्दी - साहित्यशास्त्र और हिन्दी आलोचना- सरल प्रश्नोत्तर

टी. एस. इलियट

प्रश्न- टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। इसका हिन्दी साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?

अथवा
टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का नामोल्लेख करते हुए पाश्चात्य काव्यशास्त्र में उसका स्थान निर्धारित कीजिए।
अथवा
टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का नामोल्लेख कीजिए।
अथवा 
टी. एस. इलियट के काव्य सिद्धान्तों की विस्तृत विवेचना कीजिए।
अथवा
'टी. एस. इलियट' की काव्यशास्त्रीय मान्यताओं का उल्लेख कीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. परम्परा की परिकल्पना और वैयक्तिक प्रज्ञा सम्बन्धी इलियट का सिद्धान्त बताइए।
2. इलियट के परम्परावादी सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
3. टी. एस. इलियट के निर्वैयक्तिकता सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
4. इलियट की संवेदनशीलता का असाहचर्य सम्बन्धी अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
5. इलियट के वस्तुनिष्ठ समीकरण पर एक निबन्ध लिखिए।
6. निर्वैयक्तिकता सिद्धान्त का प्रतिपादन किस विचारक ने किया? सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
7. 'संवेदनशीलता का असाहचर्य' किसका सिद्धान्त है? उसकी क्या अवधारणा है?
8. टी. एस. एलियट के 'निर्वैयक्तिकता' के सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
6. टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर -

पाश्चात्य काव्यशास्त्र समीक्षा को प्रभावित करने वाले विचारकों में टी. एस. इलियट का अपना अलग ही महत्व है। उन्होंने 20वीं शताब्दी में अपने पूर्ववर्ती समीक्षकों एवं साहित्यकारों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए अपनी मौलिक मान्यताएँ स्थापित कीं। गहरे विरोध एवं व्यापक प्रभाव वाले समीक्षक होने के कारण उन्हें विवादास्पद पाश्चात्य समीक्षक कहा जाता है। समीक्षक की दृष्टि से अरस्तू, इलियट के आदर्श रहे। साथ ही टी. ई. ह्यूम के क्लासिकवाद, एजरा पाउण्ड के काव्य सम्बन्धी नवीन सिद्धान्तों तथा मसमें के प्रतीकवाद का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उन्होंने सारे प्रभावों का समन्वय करके अपने काव्य- सिद्धान्त निर्धारित किये हैं। इलियट एक प्रयोगवादी कवि थे। हिन्दी के प्रयोगवादी कवियों पर उनका बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा है।

टी. एस. इलियट ( थामस स्टीयर्न्स इलियट ) का जन्म 26 सितम्बर 1888 में सेण्ट लुई (अमरीका) में हुआ। उनकी शिक्षा पेरिस और लन्दन में हुई। वे बाद में लन्दन में बस गये। सन् 1665 में उनका निधन हुआ। इलियट ने संस्कृत और पालि भाषा एवं साहित्य का भी अध्ययन किया। सन् 1648 में इलियट को नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

इलियट बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठतम कवियों में गिने जाते हैं। यद्यपि उन्होंने किसी समीक्षा- ग्रन्थ का प्रणयन नहीं किया, तथापि उनके समीक्षा - सम्बन्धी विचारों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इलियट आलोचना को निजी कार्यशाला का उपजात (By Product) मानते हैं और उनकी समीक्षा सृजन पक्ष के साथ जुड़ी हुई है।

1. परम्परा की परिकल्पना और वैयक्तिक प्रज्ञा - स्वच्छन्दतावादी कवि की प्रतिभा और अन्तःप्रेरणा को ही काव्य-सृजन का मूल्य मानकर, प्रतिभा को दैवी गुण स्वीकार करते थे। इसे ही वैयक्तिक काव्य सिद्धान्त कहा गया। इस मान्यता को इलियट ने अपने निबन्ध 'परम्परा एवं वैयक्तिक प्रज्ञा' में अस्वीकार किया। उसने परम्परा का भी महत्व स्वीकार किया और कहा- परम्परा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।

वे परम्परा को अन्धानुकरण न मानकर साहित्य के प्रभाव के साथ जुड़ना तथा ऐतिहासिक चेतना और उसके ज्ञान को मानते हैं।

इलियट के अनुसार - "परम्परा अत्यन्त महत्वपूर्ण वस्तु है। परम्परा को छोड़ देने से हम वर्तमान को भी छोड़ बैठेंगे।"

इलियट का परम्परा से तात्पर्य - "उन सभी स्वाभाविक कार्यों, रीति-रिवाजों (धार्मिक कृत्यों से लेकर नवागन्तुक को अभिवादन करने से स्वीकृत तरीकों) तर्कों से है जो एक स्थान में रहने वाले एक समुदाय के व्यक्तियों के रक्त सम्बन्ध को व्यक्त करते हैं।"

व्याख्यात्मक परम्परा : इलियट परम्परा का महत्वपूर्ण तत्व इतिहास बोध को मानते हैं। परम्परा से उनका तात्पर्य अन्धानुकरण नहीं और न ही प्राचीन रूढ़ियों का (चाहे वे किसी भी क्षेत्र में हों) मूक अनुमोदन है, अपितु परम्परा प्राचीनकाल के साहित्य, धारणाओं का सम्यक् बोध ही है। वे परम्परा से प्राप्त ज्ञान का अर्जन और उसके विकास के पक्षधर हैं। यही परम्परा का गत्यात्मक स्वरूप है "आग्रह इस बात का होना चाहिए कि कवि को अतीत की चेतना का विकास अथवा अर्जन करना चाहिए और फिर जीवन भर इस चेतना को निरन्तर विकसित करते रहना चाहिए।"

परम्परा और संस्कृति : इलियट परम्परा का सम्बन्ध संस्कृति से मानते हैं। संस्कृति में किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, दर्शन, साहित्य आदि के उत्कृष्ट अंग सन्निविष्ट रहते हैं। संस्कृति में एक प्रकार का नैरन्तर्य रहता है। उसकी प्राप्ति के लिए अतीत को प्रयत्नपूर्वक जानना जरूरी है। वस्तुतः अतीत के आलोक में ही वर्तमान के स्वरूप का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, एक प्रकार से अतीत ही वर्तमान का दिशा-निर्देशन करता है। अतीत और वर्तमान परस्पर पूरक हैं।

परम्परा रूढ़ि नहीं : इलियट का परम्परा- सिद्धान्त न तो रूढि- पालन है और न मौलिकता का विरोधी है। रूढ़ि पालन से तो साहित्य का विकास अवरुद्ध हो जाता है। परम्परा गतिशील, चेतना, चिरगतिशील, सर्जनात्मक सम्भावनाओं की समष्टि है। परम्परा जहाँ हमें नवीन का मूल्यांकन करने का निष्कर्ष प्रदान करती है। वहीं प्राचीनता के विकास के साथ-साथ मोलिकता का सृजन भी करती हैं। इस कारण वे सर्जनात्मक विकास के लिए अतीत में विद्यमान श्रेष्ठ तत्वों का बोध अनिवार्य मानते हैं।

परम्परा ज्ञान से लाभ : परम्परा ज्ञान से साहित्यकार को दो लाभ होते हैं-

(1) कृति में मौलिकता लाने हेतु क्या किया जा सकता है और उसे क्या करना चाहिए?

(2) वह जो कुछ कर रहा है, उसका मूल्य क्या है?

इस प्रकार परम्परा - ज्ञान द्वारा साहित्यकार को कर्त्तव्य-बोध और मूल्यों का साहित्यिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

महत्व :

(1) इलियट का परम्परा सिद्धान्त न तो रूढ़ि-पालन है और न मौलिकता का विरोधी है। परम्परावादी होने का अर्थ है - कला तथा साहित्य की पूर्ववर्ती धाराओं से अवगत होकर कला अथवा साहित्य का सर्जन करना। परम्परा ज्ञान एवं निर्वाह के लिए कलाकार के लिए विस्तृत ज्ञान की अपेक्षा रहती है।

(2) परम्परा का अर्थ है - कला तथा काव्य की प्रमुख धाराओं के चले आते स्वरूप का ज्ञान।

(3) परम्परा से ज्ञान का विस्तार होता है।

(4) परम्परा द्वारा अतीत और वर्तमान में जुड़ाव होता है जिसमें कलाकार को मध्यस्थ की भूमिका निभानी होती है।

2. अव्यक्तिवाद या निर्वैयक्तिकता - निवैयक्तिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन टी. एस. इलियट ने किया है। इलियट के अनुसार कलाकार की दो भूमिकाएँ होती हैं - वह परम्परा से कुछ लेता है और परम्परा को कुछ देता है। इस प्रक्रिया में परम्परा से लेने के लिए कलाकार को आत्म-अवसान या कुछ त्याग करना पड़ता है। यों भी कहा जा सकता है कि उसे अपने व्यक्तित्व बोध का किंचित तिरस्कार करना होता है।

कलाकार की उन्नति का आधार व्यक्तित्व विरहित होना और व्यक्तित्व का परित्याग ही है। कला के क्षेत्र में यह प्रक्रिया ही निवैयक्तीकरण (Depersonalization) की प्रक्रिया कही जाती है, जिसमें कलाकार में व्यक्तित्व का अनवरत रूप से अवसान होता है, क्योंकि इलियट परम्परा से अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण की बात स्वीकार करता है, अतः उसकी दृष्टि में श्रेष्ठ काव्य सृजन के लिए निवैयक्तिकवाद महत्त्वपूर्ण है।

परम्परा से प्राप्त श्रेष्ठ तत्वों का सृजन में प्रयोग, सांस्कृतिक मूल्यों के माध्यम से आये तत्वों का प्रयोग-कवि कलाकार के वैयक्तिक संवेगों पर अंकुश ही लगाता है। यह कलाकार के व्यक्तित्व का बलिदान चाहता है, तभी श्रेष्ठ काव्य जन्म ले सकता है- "Poetry is not a turning loose of emotion, but on escape from emotion. it is not expression of personality, but on escape from personality."

इलियट काव्य में कवि-व्यक्तित्व को महत्व नहीं देता। उसकी धारणानुसार "कविता इसलिए महान नहीं होती है क्योंकि उसमें कवि - व्यक्तित्व का अवरोपण है अथवा कवि ने उसमें कोई महान वैयक्तिक संदेश दिया है, महान उद्भावना की है वरन् कविता इसलिए महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि उसमें रचनाकार का वह निस्पृह मस्तिष्क कार्यरत होता है जो विशिष्ट एवं विभिन्न भावनाओं को स्वच्छन्दतापूर्वक बिना किसी पूर्वागृह अथवा दुराग्रह को मिश्रण करके एक नवीन सृजन करता है। रचना की इसी निवैयक्तिकता, निस्पृहता तथा तटस्थता को महत्वपूर्ण मानने के कारण ही उसने लिखा- "But the more perfect the artistä the more complete separate in him will be the man who suffers and the mind which creates."

जितना अधिक कलाकार पूर्ण होगा, उतना ही अधिक कलाकार एवं उसके सृजन संलग्न आक्रान्त मन में पृथकत्व होगा।

निर्वैयक्तिकता के रूप : इसके दो रूप स्वीकार किये गये हैं, जो निम्न हैं-

(क) प्राकृतिक : जो कुशल शिल्पी मात्र के लिए होती है।
(ख) प्रौढ़ कलाकारों द्वारा उपलब्ध निर्वैयक्तिकता।

इलियट की मान्यतानुसार - "प्रौढ़ कवि का वैयक्तिक अनुभव -क्षेत्र भी निर्वैयक्तिक ही होता है।' कविता के निर्वैयक्तिक के अनुसार कविता का जीवन स्वतन्त्र है और वह उपयुक्त माध्यम ( कवि मस्तिष्क) पाकर स्वयं अवतरित हो जाती है। इस प्रकार कवि कविता लिखता नहीं है वरन् कविता स्वयं कवि के माध्यम से शब्द-विधान द्वारा कागज पर उतर आती है। वह उत्पन्न होती है, उत्पन्न की नहीं जाती। इसे उन्होंने कला-प्रक्रिया माना जिसे उन्होंने भावों की अपेक्षा कला प्रक्रिया को महत्वपूर्ण माना और कवि के सन्निवेश को अस्वीकार किया।

समीक्षा - इलियट की निर्वैयक्तिकता की धारणा निभ्रान्त नहीं है, क्योंकि स्वयं इन्होंने अपनी धारणा को अप्रौढ़ता का रूप कहा है। इलियट ने निर्वैयक्तिकता के दो रूप माने हैं.

(क) वह जो कुशल शिल्पी के लिए प्राकृतिक होती है।
(ख) वह जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है।

यह दूसरी प्रकार की निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है जो अपने उत्कृष्ट और व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सामान्य सत्य को व्यक्त करने में सफल होता है। अतः यह संकेत स्पष्ट है कि इलियट पहले कविता को कुशल शिल्पी का विधान मात्र मानते थे, परन्तु बाद में निर्वैयक्तिकता का अर्थ प्रौढ़ कवि के निजी अनुभव की सामान्य अभिव्यक्ति के रूप में माना है। इन्होंने भावों की उस अभिव्यक्ति को सार्थकता प्रदान की है जो सर्वसामान्य के बन जाते हैं। अतः कविता के सम्बन्ध में निर्वैयक्तिकता का अर्थ होगा - कवि के भावों का सामान्यीकरण। कवि के अपने अनुभव कविता में व्यक्त होकर सर्वसामान्य के होते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के 'साधारणीकरण' सिद्धान्त में भी भाव की यही स्थिति मानी गई है।

इलियट के निर्वैयक्तिक सिद्धान्त का अर्थ व्यक्तित्व के संस्पर्श से रहित नहीं लिया जा सकता। उनके द्वारा दिये गये कई संकेतों से यह भी स्पष्ट होता है कि उनके विचारों में व्यक्तित्व सापेक्ष की स्थिति उभर आयी थी, क्योंकि उनका यह कथन विचारणीय है - "मैं विश्वास करता हूँ कि कवि अपने पात्रों को अपना कुछ अंश अवश्य प्रदान करता है, किन्तु मैं यह भी विश्वास करता हूँ कि वह अपने निर्मित पात्रों द्वारा स्वयं प्रभावित होता है।" इस कथन में कवि के व्यक्तित्व और कलाकृति के आदान-प्रदान एवं संस्पर्श की भावना सहज स्पष्ट है।

3. संवेदनशीलता का असाहचर्य - इलियट ने अनेक आलोचनात्मक मूल्यों की स्थापना कीसंवेदनशीलता का असाहचर्य भी एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। इलियट का विचार है कि महान कवि और महान काव्य में भाव और विचार का भावुकता और बौद्धिकता का, वैयक्तिकता और परम्परा का, समकालिकता और शाश्वतता का समन्वय रहता है। इनमें से किसी एक पक्ष के कमजोर पड़ने या उपेक्षित होने पर काव्योत्कर्ष खण्डित होता है। कॉलरिज के समान इलियट भी काव्य में विरोधी समन्वय का महत्त्व स्वीकार करते हैं किन्तु दोनों में थोड़ा भेद है।

सामान्य व्यवहार में मन का सम्बन्ध बौद्धिकता से और संवेदनशीलता का सम्बन्ध सहृदयता या भावुकता से जोड़ा जाता है। इलियट की आलोचनात्मक शब्दावली में कवि का मन और संवेदनशीलता अर्थात् बुद्धिपक्ष और हृदयपक्ष अभिन्न है। कवि के संज्ञानात्मक और भावात्मक पक्षों में भेद मानना असंगत है क्योंकि कवि के सर्जनात्मक व्यक्तित्व में मन और इन्द्रियाँ, विचार और भाव, बुद्धि और हृदय परस्पर मिले रहते हैं। इलियट भाव और विचार के इस साहचर्य को "विचार का प्रत्यक्ष ऐन्द्रिय बोध अथवा संवेदन में विचार का रूपान्तरण" कहते हैं। तात्पर्य कि संवेदनशीलता न तो केवल भाव है और न केवल विचार, वह दोनों का एकीभूत रूप है। जब भाव और विचार में दरार पड़ जाती है तो काव्य में अपक्षय और ह्रास आ जाता है। इसी को इलियट 'संवेदनशीलता का असाहचर्य' कहते हैं।

संवेदनशीलता के असाहचर्य का सम्बन्ध किसी विशेष युग या व्यक्ति में नियत नहीं है। कहीं के साहित्य का कोई युग ऐसा नहीं रहा जिसमें एकीभूत संवेदनशीलता रही हो अथवा संवेदनशीलता का असाहचर्य ही रहा हो। युग की बात तो छोड़ दें, व्यक्ति में भी इनकी नियत स्थिति नहीं पायी जाती। संवेदनशीलता के असाहचर्य के सिद्धान्त के लिए इलियट फ्रांसीसी कवि आलोचक रेमी द गुर्मो (1858- 1615) के आभारी है। अन्तर यह है कि गुर्मों ने केवल एक व्यक्ति (लाफोर्ग) के संदर्भ में संवेदनशीलता के असाहचर्य की बात कही थी, इलियट ने अंग्रेजी साहित्य के विशाल परिदृश्य के संदर्भ में इसका प्रयोग किया है।

4. वस्तुनिष्ठ समीकरण - कवि जब काव्य रचना में प्रवृत्त होता है तब अनेकों भाव, संवेग एवं विचार भी उसके मन में उभरते चलते हैं, जिनका सम्मिश्रण या विलयन हो जाता है। पर ये सब होते तो अमूत ही हैं। इन अमूर्त भावों को कैसे सम्प्रेषण योग्य बनाया जाये और भावक तक उन्हें कैसे पहुँचाया जाये? इसका समाधान इलियट ने अपने निबन्ध Hamlet and His Problems में करते हुए वस्तुनिष्ठ समीकरण की चर्चा की। उसके अनुसार वस्तुओं, स्थितियों और घटनाओं की श्रृंखला को इस ढंग से संयोजित करना कि वह विशिष्ट संवेगों से सम्बद्ध होकर अभिव्यक्त हो सके, (अथवा ) ये बाह्य वस्तुएँ विशिष्ट संवेगों को तुरन्त आहूत कर सकें।"

इस प्रकार ऐसी वस्तु संघटना स्थिति अथवा घटना श्रृंखला प्रस्तुत की जाये जो उस नाटकीय भाव का सूत्र हो ताकि ज्यों ही वे बाह्य वस्तुएँ, जिनका पर्यवसान मूर्त मानस अनुभव में हो, प्रस्तुत की जायें क्यों ही भाव उबुद्ध हो जाये।

संक्षेप में इलियट के 'वस्तुनिष्ठ समीकरण' को इस रूप में परखा जा सकता है

(क) भाव, विचार संवेदना तो अमूर्त ही होते हैं, उनकी यथार्थ अभिव्यक्ति किसी मूर्त वस्तु की सहायता से ही सम्भव है।

(ख) किसी भी वस्तु से किसी भी भाव की अभिव्यक्ति करना सहज नहीं होता। अतः अभिव्यक्त भाव और 'वस्तु' में साधर्म्य या सादृश्चय सम्बन्ध अपेक्षित है, तभी उस वस्तु के माध्यम से अभिप्रेत भाव का सही सम्प्रेषण हो सकता है और यह सम्प्रेषण सीधा भावक के मन में समाता चला जाता है।

(ग) किसी मूर्त विधान का कोई निश्चित रूप या प्रकार नहीं होता। यह कई प्रकार का हो सकता है जैसे प्रकृति से सम्बन्धित, घटना या परिस्थिति के रूप में।

इस प्रकार इलियट के अनुसार नाटककार या कवि अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति हेतु किसी घटना, किसी परिस्थिति किसी दृश्य को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। उनका यह सिद्धान्त (वस्तुनिष्ठ समीकरण) भारतीय रस- सिद्धान्त के 'विभावना- व्यापार' के समकक्ष ठहरता है क्योंकि 'विभाव' ही भावाभिव्यक्ति का प्रबल साधन है। इलियट का मूर्त विधान भाव के उद्बोधन मात्र तक सीमित है, वहीं रस सिद्धान्त भाव के उद्बोधन का ही नहीं, उपचय ( वृद्धि) का भी महत्व स्वीकार करता है।

पाश्चात्य काव्यशास्त्र में इलियट का स्थान

कविता और समीक्षा दोनों ही क्षेत्रों में इलियट आधुनिकता के प्रस्थान बिन्दु हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व ने न केवल अंग्रेजी साहित्य पर बल्कि विश्व साहित्य पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इलियट ने आलोचना पर न तो कोई स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा है, न कोई नियम गढ़ा है, न कोई सिद्धान्त प्रस्तुत किया है और न कोई सम्प्रदाय स्थापित किया है। फिर भी उनकी उक्तियों की सारवत्ता और शक्तिमत्ता ने अंग्रेजी आलोचना की दिशा बदल दी है और यह कहना कठिन है कि भविष्य का इतिहासकार उनके कवि रूप को अधिक महत्व देगा या आलोचक रूप को। इलियट पर प्रभाव अनेक आलोचकों का है किन्तु किसी का भी उन्होंने पूर्णतः अनुगमन नहीं किया है।

भाषा प्रयोग में इलियट बेहद सतर्क है। स्पष्टता और शब्द- अर्थ का पूर्ण सामंजस्य उन्हें अत्यन्त काम्य है। दांते ने जिन भाषा - गुणों की प्रशंसा की है वे उनमें भी वर्तमान है। उदाहरणार्थ, शब्द प्रयोग में चरम मितव्ययिता, रूपक, उपमा, शाब्दिक सौन्दर्य और लालित्य में परम संयम। इलियट की दृष्टि में भाषा की पूर्णता के सर्वोच्च निदर्शन दांते हैं। स्वभावतः उनके गुणों को इलियट ने अनुकरणीय माना है और अपनी भाषा में आहित करने का प्रयास भी किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इलियट को इसमें भरपूर सफलता मिली है। इलियट की भाषा, चाहे गद्य की हो या पद्य की अत्यन्त स्वच्छ, सटीक, प्रसन्न एवं प्रांजल है। उसमें अलंकरण नहीं है, फिर भी नैसर्गिक सौन्दर्य है। यत्र-तत्र व्यंग्य का प्रयोग उनकी भाषा को अधिक प्रभावी बना देता है। आधुनिक जीवन की जटिलता की उपयुक्त भाषा में जो सूक्ष्मता और व्यंजकता होनी चाहिए, वह इलियट की भाषा में अपनी पराकाष्ठा पर है।

अंग्रेजी में व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात कॉलरिज ने किया था। आर्नल्ड ने उसे आगे बढ़ाया, ऐसा तो नहीं कह सकते क्योंकि उसमें कॉलरिज की पकड़ और अन्तर्दृष्टि नहीं थी, फिर भी उन्होंने उसे कायम रखा। व्यावहारिक आलोचना को दृढ़ भूमि पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय इलियट को है। कहीं-कहीं व्यक्तिगत धारणाओं से आविल होने पर भी उनकी आलोचना में जो तलस्पर्शिता तथा सारग्राहिता है, वह विरल है। उसकी व्यापकता भी श्लाध्य है। अंग्रेजी में अतिरिक्त फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी साहित्यों के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्याँकन कर इलियट ने अपने साहित्यिक, सार्वभौमता के सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत किया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- काव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- भारतीय आचार्यों के मतानुसार काव्य के प्रयोजन का प्रतिपादन कीजिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आचायों के मतानुसार काव्य प्रयोजन किसे कहते हैं?
  4. प्रश्न- पाश्चात्य मत के अनुसार काव्य प्रयोजनों पर विचार कीजिए।
  5. प्रश्न- हिन्दी आचायों के काव्य-प्रयोजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए?
  6. प्रश्न- आचार्य मम्मट के आधार पर काव्य प्रयोजनों का नाम लिखिए और किसी एक काव्य प्रयोजन की व्याख्या कीजिए।
  7. प्रश्न- भारतीय आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षणों का विश्लेषण कीजिए
  8. प्रश्न- हिन्दी के कवियों एवं आचार्यों द्वारा प्रस्तुत काव्य-लक्षणों में मौलिकता का अभाव है। इस मत के सन्दर्भ में हिन्दी काव्य लक्षणों का निरीक्षण कीजिए 1
  9. प्रश्न- पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताये गये काव्य-लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
  10. प्रश्न- आचार्य मम्मट द्वारा प्रदत्त काव्य-लक्षण की विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' काव्य की यह परिभाषा किस आचार्य की है? इसके आधार पर काव्य के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  12. प्रश्न- महाकाव्य क्या है? इसके सर्वमान्य लक्षण लिखिए।
  13. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  14. प्रश्न- मम्मट के काव्य लक्षण को स्पष्ट करते हुए उठायी गयी आपत्तियों को लिखिए।
  15. प्रश्न- 'उदात्त' को परिभाषित कीजिए।
  16. प्रश्न- काव्य हेतु पर भारतीय विचारकों के मतों की समीक्षा कीजिए।
  17. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  18. प्रश्न- स्थायी भाव पर एक टिप्पणी लिखिए।
  19. प्रश्न- रस के स्वरूप का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  20. प्रश्न- काव्य हेतु के रूप में निर्दिष्ट 'अभ्यास' की व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- 'रस' का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके अवयवों (भेदों) का विवेचन कीजिए।
  22. प्रश्न- काव्य की आत्मा पर एक निबन्ध लिखिए।
  23. प्रश्न- भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य ने अलंकारों को काव्य सौन्दर्य का भूल कारण मानकर उन्हें ही काव्य का सर्वस्व घोषित किया है। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में आपकी क्या आपत्ति है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- काव्यशास्त्रीय सम्प्रदायों के महत्व को उल्लिखित करते हुए किसी एक सम्प्रदाय का सम्यक् विश्लेषण कीजिए?
  25. प्रश्न- अलंकार किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- अलंकार और अलंकार्य में क्या अन्तर है?
  27. प्रश्न- अलंकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  28. प्रश्न- 'तदोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि कथन किस आचार्य का है? इस मुक्ति के आधार पर काव्य में अलंकार की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' कथन किस आचार्य का है? इसका सम्बन्ध किस काव्य-सम्प्रदाय से है?
  30. प्रश्न- हिन्दी में स्वीकृत दो पाश्चात्य अलंकारों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्यालंकार के रचनाकार कौन थे? इनकी अलंकार सिद्धान्त सम्बन्धी परिभाषा को व्याख्यायित कीजिए।
  32. प्रश्न- हिन्दी रीति काव्य परम्परा पर प्रकाश डालिए।
  33. प्रश्न- काव्य में रीति को सर्वाधिक महत्व देने वाले आचार्य कौन हैं? रीति के मुख्य भेद कौन से हैं?
  34. प्रश्न- रीति सिद्धान्त की अन्य भारतीय सम्प्रदायों से तुलना कीजिए।
  35. प्रश्न- रस सिद्धान्त के सूत्र की महाशंकुक द्वारा की गयी व्याख्या का विरोध किन तर्कों के आधार पर किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- ध्वनि सिद्धान्त की भाषा एवं स्वरूप पर संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  37. प्रश्न- वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ ध्वनि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  38. प्रश्न- 'अभिधा' किसे कहते हैं?
  39. प्रश्न- 'लक्षणा' किसे कहते हैं?
  40. प्रश्न- काव्य में व्यञ्जना शक्ति पर टिप्पणी कीजिए।
  41. प्रश्न- संलक्ष्यक्रम ध्वनि को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
  42. प्रश्न- दी गई पंक्तियों में में प्रयुक्त ध्वनि का नाम लिखिए।
  43. प्रश्न- शब्द शक्ति क्या है? व्यंजना शक्ति का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  44. प्रश्न- वक्रोकित एवं ध्वनि सिद्धान्त का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  45. प्रश्न- कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त।
  46. प्रश्न- वक्रोक्ति सिद्धान्त व इसकी अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  47. प्रश्न- वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजनावाद के आचार्यों का उल्लेख करते हुए उसके साम्य-वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  48. प्रश्न- वर्ण विन्यास वक्रता किसे कहते हैं?
  49. प्रश्न- पद- पूर्वार्द्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  50. प्रश्न- वाक्य वक्रता किसे कहते हैं?
  51. प्रश्न- प्रकरण अवस्था किसे कहते हैं?
  52. प्रश्न- प्रबन्ध वक्रता किसे कहते हैं?
  53. प्रश्न- आचार्य कुन्तक एवं क्रोचे के मतानुसार वक्रोक्ति एवं अभिव्यंजना के बीच वैषम्य का निरूपण कीजिए।
  54. प्रश्न- वक्रोक्तिवाद और वक्रोक्ति अलंकार के विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  55. प्रश्न- औचित्य सिद्धान्त किसे कहते हैं? क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य के प्रकारों का वर्गीकरण कीजिए।
  56. प्रश्न- रसौचित्य किसे कहते हैं? आनन्दवर्धन द्वारा निर्धारित विषयों का उल्लेख कीजिए।
  57. प्रश्न- गुणौचित्य तथा संघटनौचित्य किसे कहते हैं?
  58. प्रश्न- प्रबन्धौचित्य के लिये आनन्दवर्धन ने कौन-सा नियम निर्धारित किया है तथा रीति औचित्य का प्रयोग कब करना चाहिए?
  59. प्रश्न- औचित्य के प्रवर्तक का नाम और औचित्य के भेद बताइये।
  60. प्रश्न- संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के प्रकार के निर्धारण का स्पष्टीकरण दीजिए।
  61. प्रश्न- काव्य के प्रकारों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- काव्य गुणों की चर्चा करते हुए माधुर्य गुण के लक्षण स्पष्ट कीजिए।
  63. प्रश्न- काव्यगुणों का उल्लेख करते हुए ओज गुण और प्रसाद गुण को उदाहरण सहित परिभाषित कीजिए।
  64. प्रश्न- काव्य हेतु के सन्दर्भ में भामह के मत का प्रतिपादन कीजिए।
  65. प्रश्न- ओजगुण का परिचय दीजिए।
  66. प्रश्न- काव्य हेतु सन्दर्भ में अभ्यास के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- काव्य गुणों का संक्षित रूप में विवेचन कीजिए।
  68. प्रश्न- शब्द शक्ति को स्पष्ट करते हुए अभिधा शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- लक्षणा शब्द शक्ति को समझाइये |
  70. प्रश्न- व्यंजना शब्द-शक्ति पर प्रकाश डालिए।
  71. प्रश्न- काव्य दोष का उल्लेख कीजिए।
  72. प्रश्न- नाट्यशास्त्र से क्या अभिप्राय है? भारतीय नाट्यशास्त्र का सामान्य परिचय दीजिए।
  73. प्रश्न- नाट्यशास्त्र में वृत्ति किसे कहते हैं? वृत्ति कितने प्रकार की होती है?
  74. प्रश्न- अभिनय किसे कहते हैं? अभिनय के प्रकार और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  75. प्रश्न- रूपक किसे कहते हैं? रूप के भेदों-उपभेंदों पर प्रकाश डालिए।
  76. प्रश्न- कथा किसे कहते हैं? नाटक/रूपक में कथा की क्या भूमिका है?
  77. प्रश्न- नायक किसे कहते हैं? रूपक/नाटक में नायक के भेदों का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- नायिका किसे कहते हैं? नायिका के भेदों पर प्रकाश डालिए।
  79. प्रश्न- हिन्दी रंगमंच के प्रकार शिल्प और रंग- सम्प्रेषण का परिचय देते हुए इनका संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  80. प्रश्न- नाट्य वृत्ति और रस का सम्बन्ध बताइए।
  81. प्रश्न- वर्तमान में अभिनय का स्वरूप कैसा है?
  82. प्रश्न- कथावस्तु किसे कहते हैं?
  83. प्रश्न- रंगमंच के शिल्प का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  84. प्रश्न- अरस्तू के 'अनुकरण सिद्धान्त' को प्रतिपादित कीजिए।
  85. प्रश्न- अरस्तू के काव्यं सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  86. प्रश्न- त्रासदी सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  87. प्रश्न- चरित्र-चित्रण किसे कहते हैं? उसके आधारभूत सिद्धान्त बताइए।
  88. प्रश्न- सरल या जटिल कथानक किसे कहते हैं?
  89. प्रश्न- अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की क्या विशेषताएँ हैं?
  90. प्रश्न- "विरेचन सिद्धान्त' से क्या तात्पर्य है? अरस्तु के 'विरेचन' सिद्धान्त और अभिनव गुप्त के 'अभिव्यंजना सिद्धान्त' के साम्य को स्पष्ट कीजिए।
  91. प्रश्न- कॉलरिज के काव्य-सिद्धान्त पर विचार व्यक्त कीजिए।
  92. प्रश्न- मुख्य कल्पना किसे कहते हैं?
  93. प्रश्न- मुख्य कल्पना और गौण कल्पना में क्या भेद है?
  94. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के काव्य-भाषा विषयक सिद्धान्त पर प्रकाश डालिये।
  95. प्रश्न- 'कविता सभी प्रकार के ज्ञानों में प्रथम और अन्तिम ज्ञान है। पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  96. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के कल्पना सम्बन्धी विचारों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  97. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार काव्य प्रयोजन क्या है?
  98. प्रश्न- वर्ड्सवर्थ के अनुसार कविता में छन्द का क्या योगदान है?
  99. प्रश्न- काव्यशास्त्र की आवश्यकता का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
  100. प्रश्न- रिचर्ड्स का मूल्य-सिद्धान्त क्या है? स्पष्ट रूप से विवेचन कीजिए।
  101. प्रश्न- रिचर्ड्स के संप्रेषण के सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार सम्प्रेषण का क्या अर्थ है?
  103. प्रश्न- रिचर्ड्स के अनुसार कविता के लिए लय और छन्द का क्या महत्व है?
  104. प्रश्न- 'संवेगों का संतुलन' के सम्बन्ध में आई. ए. रिचर्डस् के क्या विचारा हैं?
  105. प्रश्न- आई.ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना की समीक्षा कीजिये।
  106. प्रश्न- टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। इसका हिन्दी साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?
  107. प्रश्न- सौन्दर्य वस्तु में है या दृष्टि में है। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र के अनुसार व्याख्या कीजिए।
  108. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव तथा विकासक्रम पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  110. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी समीक्षा का क्या अभिप्राय है? विवेचना कीजिए।
  111. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  112. प्रश्न- आलोचना की पारिभाषा एवं उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  113. प्रश्न- हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  114. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  115. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  116. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  117. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  118. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  119. प्रश्न- विखंडनवाद को समझाइये |
  120. प्रश्न- यथार्थवाद का अर्थ और परिभाषा देते हुए यथार्थवाद के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  121. प्रश्न- कलावाद किसे कहते हैं? कलावाद के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।
  122. प्रश्न- बिम्बवाद की अवधारणा, विचार और उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
  123. प्रश्न- प्रतीकवाद के अर्थ और परिभाषा का वर्णन कीजिए।
  124. प्रश्न- संरचनावाद में आलोचना की किस प्रविधि का विवेचन है?
  125. प्रश्न- विखंडनवादी आलोचना का आशय स्पष्ट कीजिए।
  126. प्रश्न- उत्तर-संरचनावाद के उद्भव और विकास को स्पष्ट कीजिए।
  127. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की काव्य में लोकमंगल की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  128. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि "आधुनिक साहित्य नयी मान्यताएँ" का उल्लेख कीजिए।
  129. प्रश्न- "मेरी साहित्यिक मान्यताएँ" विषय पर डॉ0 नगेन्द्र की आलोचना दृष्टि पर विचार कीजिए।
  130. प्रश्न- डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि 'तुलसी साहित्य में सामन्त विरोधी मूल्य' का मूल्यांकन कीजिए।
  131. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनात्मक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  132. प्रश्न- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की साहित्य की नई मान्यताएँ क्या हैं?
  133. प्रश्न- रामविलास शर्मा के अनुसार सामंती व्यवस्था में वर्ण और जाति बन्धन कैसे थे?

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